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शनिवार, 26 जनवरी 2013

कौन सी मर्यादाये थी जिन्हें आर्य राजा राम ने पालन किया ?

राम भारतीय जनमानस के अंतःकरण में बसा नाम | वो नाम जो प्रेरित करता हैं हमें किसी भी युद्ध में, किसी बुराई का विचार आते ही, राम का नाम हमें श्रेष्ठ आदर्शो का ध्यान दिलाते हैं | अठाईसवे चतुर्युगी के त्रेतायुग में हुए राजा राम का चरित्र इतना बड़ा हैं के आज कलियुग में भी उनके गुणगान करते हुए हम आर्य थकते नहीं | राजा राम चंद्र ना होते तो त्रेता में ही हमारा पतन प्रारंभ हो जाता जो द्वापर के अन्त में प्रारंभ हुआ | ना केवल राजा राम चन्द्र ने आर्य संस्कृति कि रक्षा करी अपितु लंका विजय पश्चात अश्वमेध यज्ञ कर के आर्य साम्राज्य का विस्तार किया | यह वो समय था जब इस चतुर्युगी में अनार्यों ने प्रथम बार आर्यावर्त (भारत) पर आक्रमण किया था | राम जैसे शूरवीर ने उसी समय धर्मं कि रक्षा करी राक्षसों से | पर जैसा वैदिक राष्ट्र गान में प्रार्थना हैं के बलवान सभ्य योद्धा होवे, राम वैसे हि थे वीर योद्धा जो सभ्य हो और राम तो अब आर्य सभ्यता के प्रतीक हैं | शूरवीर, बलवान, अतिविनम्र, नीतिज्ञ और शील युक्त | नितिशील का गुण बहुत कम राजाओ में होता हैं होता भी हैं तो धृति (सुख दुःख,लाभ-हानि,मान-अपमान इत्यादि में धैर्य रखना) टूट हि जाती हैं | पर राम धर्म पर ही रहे उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया | ये कौन सी मर्यादाये थी जिन्हें आर्य राजा राम ने पालन किया ? वे ऋग्वेद के दसवे मंडल में वर्णित सप्त मर्यादाये हैं |
सप्त मर्यादाः कवयस्ततकक्षुस्तासामेकामिदभ्यहुरो-गात् |
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य निव्वे पथां विसर्गे धरु धरुणेषु तस्थौ || ऋ० १०|१५|०६

अर्थात् हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य-भाषण और इन पापों के करने वाले दुष्टों के सहयोग का नाम सप्त्मर्यादा हैं | जो एक भी मर्यादा का उल्लघंन करता हैं वो पापी कहलाता हैं और जो धैर्य से इन हिंसादी पापों को छोड़ देता हैं, वह निसंदेह जीवन का स्तंभ और मोक्ष भागी होता हैं |

वेद में परमात्मा के इन सात मर्यादाओ के आदेश का पालन रघुकुल नन्दक श्री राम ने जीवन पर्यंत किया |

राम के समय राजनितिक व्यवस्था वैदिक प्रजतंत्र (वर्तमान प्रजातंत्र से पूर्णतः भिन्न) से थोडा भिन्न हो के राजव्यवस्था में आगई थी | परन्तु वैदिक प्रजतंत्र से निकटतम थी | और अपने गुणों से श्री राम ने स्वयं को प्रथम राजकुमार तद्पश्चात राज पद के लिए एकदम उपयुक्त सिद्ध किया |

वेद विरुद्ध आचरण करने वाले, वर्ण व्यवस्था को ना मानने वाले, मांसाहार भक्षण करने वाले, यज्ञ(समाज हित का कार्य) में बाधा डालने वाले अनार्य राक्षस कहलाये | मनु महाराज में भी राक्षसों को ऐसे हि परिभाषित किया हैं |

“यक्षःरक्षपिशाचान्नं मद्यं मांसंसुरासवम्” मनुस्मृति ११|९५
अर्थात मद्य-मांस आदि अभक्ष्य पदार्थ हि यक्ष राक्ष और पिशाचो का अन्न हैं |

और आज के राक्षस श्री राम पर ही मांसाहार का मिथ्यारोप लगा देते हैं, कितना हास्यास्पद हैं |

वाल्मीकि रामायण अरण्य० १० |६ में बताया गया हैं के ये मनुष्यमांस खाने वाले राक्षस दण्डकारण्यवासी मुनियो को खा जाते हैं |
जानवरों का मांस खाते-खाते मनुष्य के मांस तक पहुचने में राक्षस प्रवृतियों के मनुष्यों को देर नहीं लगती | ना त्रेता में, ना कलियुग में | आज भी कुछ देशो में ऐसे मनुष्य मिल जाते है जो मानव मांस खाने के रोग से ग्रसित हैं |

उस समय से पूर्व से हि अनार्यों को देश से बहार निकाल दिया जाता था क्यों कि आर्यो के समाज को भी ऐसे लोग दूषित करेंगे और ये दोष हमारे अंदर आते देर नहीं लगेगी समाज भीतर से टूटेगा आर्य राजाओ को इन संभावनाओं का ज्ञान था | आज वही परिस्थिया तो हैं आर्यावर्त में आर्य विचारो के मनुष्य अल्प संख्या में हो गए हैं | मांसाहार का इतना प्रचलन में बढ़ गया के लोग ये समझने लगे हैं के मांसाहार के समर्थन पर बहस कि जा सकती हैं |

जो राक्षस रह जाते और राजज्ञा का उल्लघन करते | उनके कारण अरण्यो (वनों) में रहने वाले ऋषि मुनियों को वैदिक यज्ञो में समस्या होने लगी | तब उन्होंने राजा राम से प्रार्थना करी |
“हे राम | इस अरण्य में अत्यंत क्रूर और मनुष्यभक्षक लोग रहते हैं | वे हम तपस्वियों और ब्रह्मचारियो को मार कर खा जाते हैं, अतः किसी प्रकार इनका निवारण कीजिये |” अयोध्या० ११९| १९,२०

ऐसे हि अरण्य० ६|१६,१७,१९ में भी ऋषियों का श्री राम से निवेदन का प्रमाण मिलता हैं |

शूरवीर राम ने तो गुरुकुल शिक्षा ग्रहण के साथ हि अपना क्षात्र कौशल दिखा के सबको प्रभावित कर दिया था |
राम के चरित्र पर सुन्दर व्याख्यान करने वाले कवी राज तुलसी दास ने भी असुरों के आत्याचार कि यही बात कही हैं
कामरूप जानहि सब माया | सपनेहु जिनके धर्मं ना दाया ||
जेहि विधि होय धर्मनिर्मूला | सो सब करहिम वेद्प्रतिकुला ||
जेहि जेहि देश देव द्विज पावहि | नगर ग्राम पुर आग लगावहिम् ||
शुभ आचरण कतहु नहीं होई | वेद विप्र गुरु मान ना कोई ||
अर्थात “काम को हि सब कुछ समझने वाले, जिनके सपने में भी धर्मं दया नहीं, जिस भी तरह से धर्मं का नाश हो सकता था वो सब वेद प्रतिकूल(विरुद्ध) कार्य करते थे | जिस-जिस देश में द्विज(वेदाध्ययन) करने वाले पाते नगर ग्राम में सब जगह आग लगा देते | शुभ/अच्छे कार्य कभी नहीं करते, वेदों के विद्वानों का आदर नहीं करते |”
तुलसीदास ने भी अपनी काव्य शैली में वेद को धर्मं कि शिक्षाओ का मूल बताया | यह भी स्पष्ट होता हैं के अनार्य अपने काम शक्ति को वश में नहीं रख पाते थे | और आर्य बनाना सरल नहीं इन्द्रियो को वश में रखते हुए परमात्मा के मार्ग में जीवन पर्यंत चलते रहना आर्यत्व हैं | ना अधर्म करना ना अधर्म होने देना आर्यत्व के लक्षण है | आर्य राजा राम तो आर्यो के आदर्श हैं | त्रेता युग कि चर्चा को आगे बढ़ाते हैं |

समय के साथ आर्यावर्त से निष्काषित अनार्यों ने अपनी जनसँख्या बढ़ाई और रावण के समय तक तो आर्यवर्त पर आक्रमण करने का साहस आगया | कारण भी था के अनार्यों को पुलस्तस्य ऋषि के कुल से अपने नेतृत्व मिला | ऋषि कुल से निकला राक्षसों का नेता | पुल्स्तस्य ऋषि के बारे में जानते हैं, वे रावण के पितामह थे | वे वेद प्रचार को अस्त्रालय प्रदेश (यह नाम संभवतः महाभारत काल में पड़ा था अब ऑस्ट्रेलिया नाम से जाना जाता है) वह के राजा त्रणविन्दु कि पुत्री से उनका विवाह हुआ था (वा० रा० उत्तर२|४,७)| उनसे विश्रवा पैदा हुए जो रावण के पिता थे | रावण ने दक्षिणी द्वीपों में अपना साम्राज्य काफी प्रबल कर लिया था | रावण ने कुबेर से लंका जीती कुबेर को हिमालयी क्षेत्र में वसना पड़ा और रावण ने लंका को हि अपनी राजधानी बना लिया | रावण जो अति बुद्धिमान, बलशाली, आर्यवर्त के दक्षिण के द्वीपों(अस्त्रालय, बाली, मरिछ्स जो अब मौरिसस बोला जाता हैं, मेडागास्कर, शंख्द्वीप जो कि अब अफ्रीका को बोला जाता हैं के कुछ हिस्सों में अधिकार जमाया, सोमाली रावण का संबधी था जिसके नाम से अभी भी वहा एक देश हैं) में अपना प्रभुत्व ज़माने वाला अब आर्यावर्त कि ओर साम्राज्य विस्तार कि सोच रहा था शायद इसी लिए उसने लंका को अपनी राजधानी बनाया | इसके लिए उसने अपनी बहन सुर्पणखा को सबसे पहले भेजा |

यह प्रकरण वाल्मीकि रामायण के उत्तर सर्ग २४|२६,३१,३२,३६,४२ में हैं जो कुछ इस प्रकार हैं | रावण के बहनोई दुर्दैव से रावण का युद्ध हुआ जिसमे वह मारा गया जब सुर्पणखा ने अपना दुःख कहा के अब वो कहा जाए तो रावण ने १४ सहस्त्र(१४०००) कि सेना खर नाम के योद्धा के सेनापतित्व के साथ दी | और कहा के मैं तुझे दक्षिणी अरण्य का स्वामिनी बनाता हू | अब देखिये रावण कि बुद्धिमत्ता आर्यो कि सेना शक्ति जानने के लिए किस प्रकार अपनी सेना को अपने रक्त सम्बन्धी के वर्चस्व में भिजवाया, स्वामिनी बनाता हू पर अभी वो क्षेत्र जीतने बाकी थे | यही हैं रक्ष संस्कृति सगे सम्बन्धी भी उनकी महत्वकांक्षाओ से बड़े नहीं होते | अब कुछ भ्रान्तियो के कारण ऐसा माना जाता हैं के लक्ष्मण ने सुर्पणखा के नाक कान काट लिए थे और इसका हि प्रतिशोध रावण ने लिया | जब के सत्य तो कुछ ऐसा संभव हैं के सुर्पणखा ने आर्यो के साथ संधि प्रस्ताव रखा होगा ऐसा अक्सर विवाह के प्रस्ताव के साथ होता हैं | संधि प्रस्ताव टूटने में युद्ध हि होते हैं और युद्ध होने पर शारीर को चोट पहुचती हि हैं | वरना लक्ष्मण जी भला एक स्त्री कि नाक और कान हि क्यों काटेंगे | और १४००० कि सेना रखने वाली अकेले तो कोई प्रस्ताव देगी नहीं | सुर्पणखा कुरूप होगी ऐसी भ्रान्ति भी हमें नहीं रखनी चाहिए |
राम जो निकले हि थे धर्मात्माओ कि रक्षा को स्थान-२ पर सैन्य संगठन करते रहे धर्मं(धारण करने योग्य) के नाम पर | ऐसे हि एक आरोप लगाया जाता हैं के श्री राम ने बाली को छुप के मारा था | आज जब कही कोई आतंकी घटना होती हैं तो हमारे वीर सैनिक क्षेपणी(गोली) चलाने के बाद वही खड़े नहीं रहते अपना स्थान बदलते हैं ऐसे स्थान पर आढ लेते हैं | तीर के युद्ध में भी ऐसा हि होता हैं इसे छुपना नहीं युद्ध कि सामान्य निति कहते हैं | ऐसे हि कई सारी भ्रान्तिया श्री राम के बारे में गलत फैली हैं जैसे पत्थर को अहिल्या बना श्राप मुक्त करना | वह हम पूर्व में स्पष्ट कर आये हैं के ये वेद कि वैज्ञानिक कथा बिगड के पहुच गई | और वाल्मीकि रामायण में भी प्रक्षेप तो हुए ही है |

राम-रावण युद्ध एक समय शीत अवस्था में था, महाराजा शंकर जिनका समर्थन दोनों हि पक्ष चाहते थे महत्वपूर्ण था | परन्तु महारानी पार्वती जो आर्य कुल से थी उनका झुकाव राजा राम कि ओर था |

अयोध्या से चले राम सहस्त्रो मील चलते हुए सेना जोड़ते हुए आर्यावर्त के दक्षिणी तट पर पहुचे और वह उनकि सेना के कुशल स्थापत्य अभियन्त्रिक नल-नील ने नीव युक्त सेतु के निर्माण कि योजना बनाइ जिसे श्री राम कि सेना ने श्री राम कि अनुमति से क्रियान्वित किया | आज जब कोई निर्माण होता हैं तो उस योजना कि अनुमति देने वाले मुख्यमत्री इत्यादि नेता के नाम का पत्थर भी लगा दिया जाता हैं इसी प्रकार श्री राम के सेतु पर भी उनका नाम जगह-२ पत्थरों पर लिखा गया होगा | इस से पत्थर तैरने नहीं लगेंगे अगर पत्थर तैरते तो पुल तो अब तक बह कर कही और पहुच गया होता | ३० किलोमीटर लंबे राम सेतु नीव युक्त निर्माणित किया गया था, इसका प्रमाण अभी भी उपग्रह से मिले चित्र से हमें मिलता हैं |



लंका पहुच के जो युद्ध हुआ उसकी चर्चा आने वाले समय तक लंबे समय तक होगी | दोनों तरफ से शुरवीर लड़े, रावण के कुल में भी तो ऋषियों का रक्त था भेद तो केवल विचारों पर था यदि वह अपने ऋषि कुल परंपरा का पालन करता तो संसार में उसका अलग नाम होता | पर वो तो अपने माँतुलो(मामा) के पक्ष से प्रभावित रहा | अतंतः श्री राम के हाथो मारा गया |

इससे पूर्व जब राक्षसों ने अपने हि समाज में उत्पात उठाया था तो महाराज विष्णु ने उनका विनाश कर दिया था उनका प्रभाव इतना अधिक हुआ के उनके बाद जो भी राक्षसों का विनाश करता विष्णु का अवतार (यानि विष्णु फिर आये है) माना जाता | ये गौण रूप में बोला जाता होगा | १-२ सहस्त्रो वर्षों से तो यहाँ अवतार का अर्थ ही बदल गया हैं |

श्री राम नित्य संध्या (ईश्वर ध्यान) करते थे | जो वैदिक शिक्षा उन्होंने गुरुकुल में ग्रहण करी जीवन पर्यंत उसपर चले | जहा एक समय राजाओ से मिलना संभव नहीं वही राम इतने जन प्रिय थे अपनी शीलता के कारण | समाज का हर वर्ग उनसे प्रेम करता था क्यों उन्होंने पक्षपात रहित राज्य का सञ्चालन किया | उनका साम्राज्य बहुत विस्तारित हुआ आगे चक्रवर्ती अन्य राजा हुए | पर अगर राम केवल अपना राज्य देखते आर्य संस्कृति के लिए राक्षसों के वध को ना निकलते तो ना जाने इस देश का क्या हाल होता | कैसे कृष्ण हो, पाते कैसे दयानंद हो पाते | राम के राज्य कि सीमाए सांस्कृतिक सीमाए थी | इसका श्रेय कही न कही हमें महारानी कैकयी को भी देना होगा | रामायण सम्बन्धी इतनी भ्रान्तिया हैं के उनका विस्तारपूर्वक शोधपरक समाधान करना चाहिए | लेख को विस्तार भय से अब हम समापन पर लाते हैं |

“आर्य” श्रेष्ठ को कहते हैं श्री राम को वाल्मीकि रामायण में जगह-२ आर्य पुत्र कहा गया हैं | इतिहास में उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम कि उपाधि यु हि नहीं मिली | राम निश्चय हि आप्त(कभी पाप ना करने वाले) थे | ऋषि दयानादं कि भी यही मान्यता थी | मानवता के नियमों का पालन करने वाले हर व्यक्ति के लिए राम आदर्श हैं | बहुविवाह कि अवैदिक मान्यता उनके पिता से आगे, ना बढ़ने पाए इसलिए उन्होंने स्वयं वेदों का पालन किया | रावण जैसे बलवान से भी ना डरने वाले राम, केवट और शबरी को ह्रदय से लगाने वाले राम, राज्य का वैभव में और जंगलो में दोनों में बुद्धि को सम रखने वाले थे | राम के गुण जब आर्य अपने अंदर लायेंगे तभी राष्ट्र का कल्याण होगा | जैसे परमात्मा सब पर दयालु हैं और दुष्टों को दंड दे के रुलाता हैं परमात्मा के उसी गुण को लाते हुए जीवन जीने वाले राम निर्बलो के सहायक हुए और बलवान दुष्टों के विनाशक हुए | परमात्मा का ध्यान करते हुए जीवन के उद्देश्य को कभी न भूलने वाले राम सदैव विनयी रहे | आर्य संस्कृति अनुशाषित जीवन जीने वाले आर्यो कि संस्कृति का नाम हैं | आर्य बनाना सरल नहीं तपस्या चाहिए | तपस्वी राम का ध्यान करने का यही अर्थ हैं उनके विजय का उत्सव मनाने का अर्थ यही हैं के हम वेद मार्ग पर चले | सप्तमर्यदाओ का पालन करे, ना अन्याय करे ना होने दे | “जय श्री राम” का उद्घोष यदि हमारे रक्त में पुनः एड्रानलीन घोल देता हैं शौर्य जगाता हैं हमें सर काटने और कटाने के भय से मुक्त करता तो वो इसलिए क्यों के हम आर्य है | हम यदि स्वयं मांसभक्षण करे, पराई स्त्री पर बुरी नजर डाले, झूठ बोले, जुआ खेले, शराब पिए, रिश्वत ले, हिंसा करे या कैसे ऐसा या कैसा भी अधर्म करे या होने दे तो हमारा जय श्री राम कहने का कोई अर्थ नहीं हैं | हमारे त्रेता युग के आदर्श मनुमार्गानुगामी श्री राम हैं तो उनके मार्ग पर हमें चलना भी होगा तभी विजयादशमी और दीपपर्व मनाना सही अर्थो में सार्थक होगा | वरना जिन राक्षसों से श्री राम अयोध्या से बाहर लड़े हम उन राक्षसों के गुण अपने शरीर रूपी अयोध्या में ले आये तो उनका अपमान होगा | आइये हम संकल्प ले के हम ऐसा नहीं करेंगे हम भी मर्यादाओ का पालन करेंगे | हम भी वेद मार्ग पर चलेंगे और राम राज्य कि पुनः स्थापना करेंगे |

जय जय श्री राम
नमस्ते

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