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शुक्रवार, 14 मार्च 2014

इस जन्म के सुख दुःख का संबंध पूर्वजन्म से

ऐसे जानें पूर्वजन्म में आप क्या थे, क्यों मिला यह जीवन========== इस जन्म के सुख दुःख का संबंध पूर्वजन्म से
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पुनर्जन्म : पिछले जन्म में आप क्या थे?
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पिछले जन्म में आप क्या थे? क्या वाकई आप जानना चाहते हैं? क्या आप पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानते हैं? पिछला या पुनर्जन्म होता है या नहीं? यह सवाल प्रत्येक व्यक्ति के मन में होगा। हो सकता है कि कुछ लोग मानकर ही बैठ गए हैं कि हां होता है और कुछ लोग यह मानते हैं कि नहीं होता है।

दोनों ही तरह के लोग यह कभी जानने का प्रयास नहीं करेंगे कि पुनर्जन्म होता है या नहीं, क्योंकि धर्म ने आपको रेडीमेड उत्तर दे दिए हैं। बचपन से ही मुसलमान को बता दिया जाना है कि पुनर्जन्म नहीं होता है और हिन्दू को बता दिया जाता है कि होता है। अब बस खोज बंद। धर्म ने सब खोज लिया, तुम नाहक ही क्यों परेशान होते हो?
जीवन में जब कभी भी परेशानी आती है तो एक बार मन में यह सवाल जरुर उठता है कि आखिर पिछले जन्म में ऐसा कौन सा पाप किया है कि इसकी सजा मिल रही है।

अगर आप ऐसा सोचते हैं तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। क्योंकि इस जन्म के सुख दुःख का संबंध पूर्वजन्म से भी होता है। यह बात परामनोविज्ञान और ज्योतिषशास्त्र दोनों कहता है।
तीन धर्म है - यहूदी, ईसाईयत, इस्लाम जो पुनर्जन्‍म के सिद्धांत को नहीं मानते। उक्त तीनों धर्मों के समानांतर- हिंदू, जैन और बौद्ध यह तीनों धर्म मानते हैं कि पुनर्जन्म एक सच्चाई है। अरब में किसी बच्चे को अपने पिछले जन्म की याद नहीं आती, लेकिन भारत में ऐसे ढेरों किस्से हैं कि फलां-फलां बच्चे को पिछले जन्म का याद आ गया। ऐसा क्यों?

विज्ञान इस संबंध में अभी तक खोज कर रहा है। वह किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा है।

हिंदू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। इसका अर्थ है कि आत्मा जन्म एवं मृत्यु के निरंतर पुनरावर्तन की शिक्षात्मक प्रक्रिया से गुजरती हुई अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। उसकी यह भी मान्यता है कि प्रत्येक आत्मा मोक्ष प्राप्त करती है, जैसा गीता में कहा गया है।

हमारा यह शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है- आकाश, वायु, अग्नि, जल, धरती। यह जिस क्रम में लिखे गए हैं उसी क्रम में इनकी प्राथमिकता है। आकाश अनुमानित तत्व है अर्थात् जिसको आप प्रूव नहीं कर सकते कि यह 'आकाश' है। आकाश किसे कहते हैं? आज तक किसी ने आकाश नहीं देखा, उसी तरह जिस तरह की वायु नहीं देखी, लेकिन वायु महसूस होती है इसलिए अनुमानित तत्व नहीं है। आकाश को अनुमानित तत्व कहना गलत है।

खैर। शरीर जब नष्ट होता है तो उसके भीतर का आकाश, आकाश में लीन हो जाता है, वायु भी वायु में समा जाती है। अग्नि में अग्नि और जल में जल समा जाता है। अंत में बच जाती है राख, जो धरती का हिस्सा है। इसके बा‍द में कुछ है जो बच जाता है उसे कहते हैं आत्मा।

लेकिन इसके बाद भी बहुत कुछ बचता है। एक छठवें तत्व की हम बात करें- हमने कई बार सुना होगा- मन और मस्तिष्क। निश्‍चित ही मस्तिष्क को मन नहीं कहते तब फिर मन क्या है? क्या वह भी शरीर के नष्‍ट होने पर नष्ट हो जाता है? शरीर तो भौतिक जगत का हिस्सा है, लेकिन मन अभौतिक है। यह मन ही आत्मा के साथ आकाशरूप में विद्यमान रहता है।

एक सातवां तत्व भी होता है जो बच जाता है, उसे कहते हैं- बुद्धि। बुद्धि हमारा बोध है। हमने जो भी देखा और भोगा वह बोध ही आकाशरूप में विद्यमान रहता है। इसके बाद एक और अंतिम तत्व होता है जिसे कहते हैं- अहंकार। यह घमंड वाला अहंकार।

स्वयं के होने के बोध को ही अंतिम अहंकार कहते हैं। अहंकार से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। गीता में आठ तत्वों की चर्चा की गई है। उक्त आठ तत्वों को विस्तार से जानना है तो वेदों का अंतिम भाग उपनिषद पढ़े, जिसे वेदांत भी कहा जाता है। लगभग 1008 उपनिषद हैं।

योग ने मन, बुद्धि और अहंकार को नाम दिया 'चित्त'। यह चित्त ही चेतना (आत्मा) का मास्टर चिप है। यह मास्टर पेन ड्राइव है, जिसमें लाखों जन्म का डाटा इकट्ठा होता रहता है। आप इसे कुछ भी अच्छा-सा नाम दे सकते हैं।

चित्त की वृत्तियों का निरोध तो किया जा सकता है, किंतु चित्त को समाप्त करना मुश्‍किल है और जो इसे समाप्त कर देता है उसे मोक्ष मिल जाता है।

क्या आप अपना पिछला जन्म जानना चाहते हैं? ऐसे जानें पूर्वजन्म को
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हमारा संपूर्ण जीवन स्मृति-विस्मृति के चक्र में फंसा रहता है। उम्र के साथ स्मृति का घटना शुरू होता है, जोकि एक प्राकृति प्रक्रिया है, अगले जन्म की तैयारी के लिए। यदि मोह-माया या राग-द्वेष ज्यादा है तो समझों स्मृतियां भी मजबूत हो सकती है। व्यक्ति स्मृति मुक्त होता है तभी प्रकृति उसे दूसरा गर्भ उपलब्ध कराती है। लेकिन पिछले जन्म की सभी स्मृतियां बीज रूप में कारण शरीर के चित्त में संग्रहित रहती है। विस्मृति या भूलना इसलिए जरूरी होता है कि यह जीवन के अनेक क्लेशों से मुक्त का उपाय है।

योग में अ‍ष्टसिद्धि के अलावा अन्य 40 प्रकार की सिद्धियों का वर्णन मिलता है। उनमें से ही एक है पूर्वजन्म ज्ञान सिद्धि योग। इस योग की साधना करने से व्यक्ति को अपने अगले पिछले सारे जन्मों का ज्ञान होने लगता है। यह साधना कठिन जरूर है, लेकिन योगाभ्यासी के लिए सरल है।

कैसे जाने पूर्व जन्म को : योग कहता है कि ‍सर्व प्रथम चित्त को स्थिर करना आवश्यक है तभी इस चित्त में बीज रूप में संग्रहित पिछले जन्मों का ज्ञान हो सकेगा। चित्त में स्थित संस्कारों पर संयम करने से ही पूर्वन्म का ज्ञान होता है। चित्त को स्थिर करने के लिए सतत ध्यान क्रिया करना जरूरी है।

जाति स्मरण का प्रयोग : जब चित्त स्थिर हो जाए अर्थात मन भटकना छोड़कर एकाग्र होकर श्वासों में ही स्थिर रहने लगे, तब जाति स्मरण का प्रयोग करना चाहिए। जाति स्मरण के प्रयोग के लिए ध्यान को जारी रखते हुए आप जब भी बिस्तर पर सोने जाएं तब आंखे बंद करके उल्टे क्रम में अपनी दिनचर्या के घटनाक्रम को याद करें। जैसे सोने से पूर्व आप क्या कर रहे थे, फिर उससे पूर्व क्या कर रहे थे तब इस तरह की स्मृतियों को सुबह उठने तक ले जाएं।

दिनचर्या का क्रम सतत जारी रखते हुए 'मेमोरी रिवर्स' को बढ़ाते जाए। ध्यान के साथ इस जाति स्मरण का अभ्यास जारी रखने से कुछ माह बाद जहां मोमोरी पॉवर बढ़ेगा, वहीं नए-नए अनुभवों के साथ पिछले जन्म को जानने का द्वार भी खुलने लगेगा। जैन धर्म में जाति स्मरण के ज्ञान पर विस्तार से उल्लेख मिलता है।

क्यों जरूरी ध्यान : ध्यान के अभ्यास में जो पहली क्रिया सम्पन्न होती है वह भूलने की, कचरा स्मृतियों को खाली करने की होती है। जब तक मस्तिष्क कचरा ज्ञान, तर्क और स्मृतियों से खाली नहीं होगा, नीचे दबी हुई मूल प्रज्ञा जाग्रत नहीं होगी। इस प्रज्ञा के जाग्रत होने पर ही जाति स्मरण ज्ञान (पूर्व जन्मों का) होता है। तभी पूर्व जन्मों की स्मृतियां उभरती हैं।

सावधानी : सुबह और शाम का 15 से 40 मिनट का विपश्यना ध्यान करना जरूरी है। मन और मस्तिष्क में किसी भी प्रकार का विकार हो तो जाति स्मरण का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह प्रयोग किसी योग शिक्षक या गुरु से अच्‍छे से सिखकर ही करना चाहिए। सिद्धियों के अनुभव किसी आम जन के समक्ष बखान नहीं करना चाहिए। योग की किसी भी प्रकार की साधना के दौरान आहार संयम जरूरी रहता है।

ज्योतिषशास्त्र कहता है कि व्यक्ति चाहे तो स्वयं भी अपने पूर्वजन्म के बारे में जान सकता है लेकिन इसके लिए कुछ बातों का ध्यान रखना होगा।
पूर्वजन्म और भाग्य का सहयोग
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ज्योतिषशास्त्र के अनुसार अगर आपकी कुण्डली में गुरु लग्न यानी पहले घर में बैठा है तो यह समझना चाहिए कि पूर्वजन्म में आप किसी विद्वान परिवार में जन्मे थे।

जन्मपत्री में गुरु पांचवे, सातवें या नवम घर में बैठा है तो यह संकेत है कि आप पूर्व जन्म में धर्मात्मा, सद्गुणी एवं विवेकशील रहे होंगे।

इसके प्रभाव से इस जन्म में भी आप पढ़ने लिखने में होशियार होंगे। समय-समय पर आपको भाग्य का सहयोग मिलेगा। धर्म में आपकी रुचि रहेगी।
पूर्वजन्म में अस्वभाविक मृत्यु हुई होगी
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जिनकी जन्म कुण्डली में राहु पहले या सातवें घर में बैठा होता है उनके विषय में ज्योतिषशास्त्र कहता है कि इनकी अस्वभाविक मृत्यु हुई होगी।

ऐसा व्यक्ति वर्तमान जीवन में चालाक होता है। इनका मन कई बार उलझनों में घिरा रहता है। वैवाहिक जीवन में आपसी तालमेल की कमी रहती है।
ऐसे व्यक्ति पूर्व जन्म में व्यापारी होते हैं
जिन व्यक्तियों का जन्म कर्क लग्न में हुआ है। यानी कुण्डली में पहले घर में कर्क राशि है और चन्द्रमा इस राशि में बैठा है तो यह समझना चाहिए कि व्यक्ति पूर्वजन्म में व्यापारी रहा होगा।
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वर्तमान जन्म में ऐसा व्यक्ति चंचल स्वभाव का होता है। छोटे-मोटे उतार-चढ़ाव के साथ यह जीवन में सफल होते हैं।

लग्न स्थान में बुध की उपस्थिति से भी यह संकेत मिलता है कि व्यक्ति पूर्व जन्म में किसी व्यापारी के परिवार में जन्मा होगा। ऐसे व्यक्ति वर्तमान जीवन में भी व्यवसाय एवं गणित में होशियार होता है।
इनके क्रोध से लोग परेशान रहे होंगे
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जिनकी जन्मपत्री में मंगल छठे, सातवें या दसवें स्थान में होता है वह पूर्वजन्म में बहुत ही क्रोधी व्यक्ति रहे होंगे। इन्होंने अपने क्रोध के कारण कई लोगों को कष्ट पहुंचाया होगा।

इस जन्म में ऐसे व्यक्तियों को रक्तचाप की शिकायत हो सकती है। वैवाहिक जीवन में परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। चोट और दुर्घटना के कारण कष्ट होता है।

बांस की इन खूबियों को जानकर हैरान रह जाएंगे आप

बांस की इन खूबियों को जानकर हैरान रह जाएंगे आप
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अगर आपके लाख प्रयास के बावजूद आपको नौकरी और व्यवसाय में अच्छी सफलता नहीं मिल रही है तो आपको अपने घर में बांस का पौधा लगाना चाहिए। अगर आप सोच रहे हैं कि बांस के पौधे में आखिर ऐसी क्या खूबी है, जो आपको सफलता दिला सकती है तो हम आपको इसकी खूबी बताते हैं।

बांस संसार का एक मात्र ऐसा पौधा है जो किसी भी वातावरण में तेजी से उन्नति करता है। अपने इसी गुण के कारण इसे उन्नति का प्रतीक और समृद्धि देने वाला पौधा माना जाता है। फेंगशुई में बांस के पौधे को दिव्य पौधा कहा जाता है।

भारतीय वास्तु विज्ञान में भी बांस को शुभ माना गया है। ऐसा माना जाता है कि बांस का पौधा जहां होता है वहां बुरी आत्माएं नहीं आती हैं। शादी, जनेऊ, मुण्डन में बांस की पूजा एवं बांस से मण्डप बनाने के पीछे भी यही कारण है।

बचपन में भगवान श्री कृष्ण हमेशा अपने पास बांस की बांसुरी रखते थे। इसका कारण भी संभवतः यही था कि उन पर हमेशा आसुरी शक्तियों का भय बना रहता था। आसुरी शक्तियों को कमज़ोर करने एवं उन पर विजय पाने में बांसुरी द्वारा उत्पन्न सकारात्मक उर्जा से उन्हें मदद मिलती थी।

वास्तु एवं फेंगशुई के अनुसार घर में अगर किसी प्रकार का वास्तु दोष है तो घर के मुख्य द्वार पर बांस की दो बांसुरी लटका देनी चाहिए। इसके हिलने से जो उर्जा उत्पन्न होती है वह वास्तु दोष एवं नकारात्मक उर्जा से घर को मुक्त बनाती है।

बेडरूम में बेड के ऊपर बीम का होना वास्तु के अनुसार बहुत ही अशुभ होता है। इससे मानसिक तनाव एवं दांपत्य जीवन में दूरियां बढ़ती है। इस दोष को दूर करने के लिए सबसे आसान तरीका यह है कि दो बांसुरी लेकर उसे बीम के दोनों तरफ लाल फीते से बांध दें। इसमें यह ध्यान रखना चाहिए कि बांसुरी की मुंह बेड की ओर रहे।

बांस की बांसुरी या पौधा ड्राईंग रूप में लगाने से घर में सुख-समृद्धि आती है। मन में आशा का संचार होता है और मनोबल बढ़ता है। बांस के इन्हीं दिव्य गुणों के कारण बांस को जलाना शुभ नहीं माना जाता है।

स्वस्थ काया के साथ माया देते हैं शंख


स्वस्थ काया के साथ माया देते हैं शंख
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धार्मिक ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से एक शंख को सुख-समृद्धि और निरोगी काया का प्रतीक माना जाता है। इस मंगलचिह्न को घर के पूजा स्थल में रखने से जहां अरिष्टों और अनिष्टों का नाश होता है, सौभाग्य वृद्धि भी होती है।

आध्यात्मिक ग्रंथों, पौराणिक मतों के अनुसार देवता और दानवों ने अमृत की खोज के लिए मंदराचल पर्वत की मथानी से क्षीरसागर मंथन किया, उससे 14 प्रकार के रत्न प्राप्त हुए। आठवें रत्न के रूप में शंखों का जन्म हुआ जिसमें मुख्य दक्षिणावर्ती शंख, गोमुखी शंख तथा अन्य कई प्रकार के शंख प्राप्त हुए।

प्रतिदिन घर में शंखनाद करने से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करती है। शंख ध्वनि से सूक्ष्म जीवाणुओं का नाश होता है। शंख में पंच तत्वों का संतुलन बराबर बनाए रखने की प्रचुर क्षमता होती है।

श्री गणेश शंख : इस शंख की आकृति भगवान श्री गणेश की तरह ही होती है। यह शंख दरिद्रता नाशक और धन प्राप्ति का कारक है।

अन्नपूर्णा शंख : अन्नपूर्णा शंख का उपयोग घर में सुख-शान्ति और श्री समृद्धि के लिए अत्यन्त उपयोगी है। गृहस्थ जीवन यापन करने वालों को प्रतिदिन इसके दर्शन करने चाहिए।

कामधेनु शंख : कामधेनु शंख का उपयोग तर्क शक्ति को और प्रबल करने के लिए किया जाता है। इस शंख की पूजा-अर्चना करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

मोती शंख : इस शंख का उपयोग घर में सुख और शांति के लिए किया जाता है। मोती शंख हृदय रोग नाशक भी है। मोती शंख की स्थापना पूजा घर में सफेद कपड़े पर करें और प्रतिदिन पूजन करें, लाभ मिलेगा।

ऐरावत शंख : ऐरावत शंख का उपयोग मनचाही साधना सिद्ध को पूर्ण करने के लिए, शरीर की सही बनावट देने तथा रूप रंग को और निखारने के लिए किया जाता है। प्रतिदिन इस शंख में जल डाल कर उसे ग्रहण करना चाहिए। शंख में जल प्रतिदिन 24 - 28 घण्टे तक रहे और फिर उस जल को ग्रहण करें, तो चेहरा कांतिमय होने लगता है।

विष्णु शंख : इस शंख का उपयोग लगातार प्रगति के लिए और असाध्य रोगों में शिथिलता के लिए किया जाता है। इसे घर में रखने भर से घर रोगमुक्त हो जाता है।

पौण्ड्र शंख : पौण्ड्र शंख का उपयोग मनोबल बढ़ाने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग विद्यार्थियों के लिए उत्तम है। इसे विद्यार्थियों को अध्ययन कक्ष में पूर्व की ओर रखना चाहिए।

मणि पुष्पक शंख : मणि पुष्पक शंख की पूजा-अर्चना से यश कीर्ति, मान-सम्मान प्राप्त होता है। उच्च पद की प्राप्ति के लिए भी इसका पूजन उत्तम है।

देवदत्त शंख : इसका उपयोग दुर्भाग्य नाशक माना गया है। इस शंख का उपयोग न्याय क्षेत्र में विजय दिलवाता है। इस शंख को शक्ति का प्रतीक माना गया है। न्यायिक क्षेत्र से जुड़े लोग इसकी पूजा कर लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

श्रेष्ठ है दक्षिणावर्ती शंख
इस शंख को देव स्वरूप माना गया है। शंख के मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा, अग्रभाग में गंगा का निवास है। दक्षिणावर्ती शंख के पूजन से खुशहाली आती है और लक्ष्मी प्राप्ति के साथ-साथ सम्पत्ति भी बढ़ती है। जहां शंखनाद और शंख पूजन होता है वहां लक्ष्मी स्थायी रूप से निवास करती हैं।

दक्षिणावर्ती शंख दो प्रकार के होते हैं नर और मादा। जिसकी परत मोटी हो और भारी हो वह नर और जिसकी परत पतली हो और हल्का हो, वह मादा शंख होता है। दक्षिणावर्ती शंख की स्थापना यज्ञोपवीत पर करनी चाहिए। शंख का पूजन केसर युक्त चंदन से करें। प्रतिदिन नित्य क्रिया से निवृत्त होकर शंख की धूप-दीप-नैवेद्य-पुष्प से पूजा करें और तुलसी दल चढ़ाएं।

दक्षिणावर्ती शंख की पूजा और फल
प्रथम प्रहर में पूजन करने से मान-सम्मान की प्राप्ति होती है। द्वितीय प्रहर में पूजन करने से धन- सम्पत्ति में वृद्धि होती है। तृतीय प्रहर में पूजन करने से यश व कीर्ति में वृद्धि होती है। चतुर्थ प्रहर में पूजन करने से संतान प्राप्ति होती है। प्रतिदिन पूजन के बाद 108 बार या श्रद्धा के अनुसार मंत्र का जप करें। ॐ हृीं क्लीं ब्लूं सुदक्षिणां वर्त शंख स्वाय नम:। यह शंख बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रभावी है। इस शंख की उत्पत्ति भी माता लक्ष्मी की तरह समुद्र मंथन से हुई है। इसलिए माता लक्ष्मी इसे सहोदर मानती हैं। यह शंख श्रीहरि विष्णु को भी अतिप्रिय है, अत: इसे विधि-विधान से घर में प्रतिष्ठित किया जाए तो घर के वास्तुदोष भी समाप्त होते हैं।

इस शंख को दक्षिणावर्ती इसलिए कहा जाता है क्योंकि जहां सभी शंखों का पेट बाईं ओर खुलता है वहीं इसका पेट विपरीत दार्इं और खुलता है। इस शंख की उपस्थिति ही कई रोगों का नाश कर देती है। दक्षिणावर्ती शंख पेट के रोग में भी बहुत लाभदायक है।

पेट मेें दर्द रहता हो, आंतों में सूजन हो अल्सर या घाव हो तो दक्षिणावर्ती शंख में रात में जल भरकर रख दिया जाए और सुबह उठकर खाली पेट उस जल को पिया जाए तो पेट के रोग जल्दी समाप्त हो जाते हैं।

नेत्र रोगों में भी यह लाभदायक है। यही नहीं, कालसर्प योग में भी यह रामबाण का काम करता है। दक्षिणावर्ती शंख से शिवजी का अभिषेक करने से शीघ्र लाभ प्राप्त होता है। विशेष कार्य में जाने से पहले दक्षिणावर्ती शंख के दर्शन करने भर से उस काम के सफल होने की संभावना बढ़ जाती है

जानें, क्यों 'रुद्राक्ष' पहनने से हो जाते हैं सारे काम

 
जानें, क्यों 'रुद्राक्ष' पहनने से हो जाते हैं सारे काम ...
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रुद्राक्ष यानि रुद्र+अक्ष, रुद्र अर्थात भगवान शंकर व अक्ष अर्थात आंसू। भगवान शिव के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें भूमि पर गिरने से महान रुद्राक्ष अवतरित हुआ। भगवान शिव की आज्ञा पाकर वृक्षों पर रुद्राक्ष फलों के रूप में प्रकट हो गए। मान्यता है रुद्राक्ष अड़तीस प्रकार के हैं जिनमें कत्थई वाले बारह प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति सूर्य के नेत्रों से, श्वेतवर्ण के सोलह प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति चन्द्रमा के नेत्रों से तथा कृष्ण वर्ण वाले दस प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति अग्नि के नेत्रों से होती है। आइए जानें रुद्राक्षों के दिव्य तेज से आप कैसे दुखों से मुक्ति पा कर सुखमय जीवन जीते हुए शिव कृपा पा सकते हैं

यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्ष: फलद: शुभ:।
न तथा दृश्यते अन्या च मालिका परमेश्वरि:।।

अर्थात संसार में रुद्राक्ष की माला की तरह अन्य कोई दूसरी माला फलदायक और शुभ नहीं है।

श्रीमद्- देवीभागवत में लिखा है :
रुद्राक्षधारणाद्य श्रेष्ठं न किञ्चिदपि विद्यते।

अर्थात संसार में रुद्राक्ष धारण से बढ़कर श्रेष्ठ कोई दूसरी वस्तु नहीं है।

रुद्राक्ष की दो जातियां होती हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष

रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्ष धारण करना महान फलदायक होता है।

भिन्न-भिन्न संख्या में पहनी जाने वाली रुद्राक्ष की माला निम्न प्रकार से फल प्रदान करने में सहायक होती है जो इस प्रकार है

1 रुद्राक्ष के सौ मनकों की माला धारण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

2 रुद्राक्ष के एक सौ आठ मनकों को धारण करने से समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। इस माला को धारण करने वाला अपनी पीढ़ियों का उद्घार करता है।

3 रुद्राक्ष के एक सौ चालीस मनकों की माला धारण करने से साहस, पराक्रम और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

4 रुद्राक्ष के बत्तीस दानों की माला धारण करने से धन, संपत्ति एवं आयु में वृद्धि होती है।

5 रुद्राक्ष के 26 मनकों की माला को सर पर धारण करना चाहिए।

6 रुद्राक्ष के 50 दानों की माला कंठ में धारण करना शुभ होता है।

7 रुद्राक्ष के पंद्रह मनकों की माला मंत्र जप तंत्र सिद्धि जैसे कार्यों के लिए उपयोगी होती है।

8 रुद्राक्ष के सोलह मनकों की माला को हाथों में धारण करना चाहिए।

9 रुद्राक्ष के बारह दानों को मणि बंध में धारण करना शुभदायक होता है।

10 रुद्राक्ष के 108, 50 और 27 दानों की माला धारण करने या जाप करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।

रुद्राक्ष माला को धारण करने के नियम
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1 जिस रुद्राक्ष माला से जाप किया जाता है उसे धारण नहीं करना चाहिए। उसी प्रकार जिस माला को धारण किया जाता है उससे जाप नहीं करना चाहिए।

2 किसी अन्य के उपयोग में आया रुद्राक्ष अथवा रुद्राक्ष माला को उपयोग नहीं करना चाहिए।

3 रुद्राक्ष की प्राण-प्रतिष्ठा करवाने के पश्चात उसे शुभ मुहूर्त में ही धारण करें।

4 रुद्राक्ष धारण करने वाले जातक को मांस, मदिरा, लहसुन और प्याज का सेवन नहीं करना चाहिए।

5 रुद्राक्ष को अंगूठी में जड़वाकर धारण नहीं करना चाहिए।

6 स्त्रियों को मासिक धर्म के समय रुद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिए।

7 रुद्राक्ष धारण कर रात को शयन नहीं करना चाहिए।

जो व्यक्ति पवित्र और शुद्ध मन से भगवान शंकर की आराधना करके रुद्राक्ष धारण करता है, उसका सभी कष्ट दूर हो जाता है। यहां तक मानना है कि इसके दर्शन मात्र से ही पापों का क्षय हो जाता है। जिस घर में रुद्राक्ष की पूजा की जाती है, वहां लक्ष्मी जी का वास रहता है। रुद्राक्ष भगवान शंकर की एक अमूल्य और अद्भुद देन है। यह शंकर जी की अतीव प्रिय वस्तु है। इसके स्पर्श तथा इसके द्वारा जप करने से ही समस्त पाप से निवृत्त हो जाते है और लौकिक-परलौकिक एवं भौतिक सुख की प्राप्ति होती है।

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