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बुधवार, 13 अगस्त 2014

■गुरुत्वाकर्षण के असली खोजकर्ता कौन ? ●भास्कराचार्य या न्यूटन ?

■गुरुत्वाकर्षण के असली खोजकर्ता कौन ? ●भास्कराचार्य या न्यूटन ?


 आइये जाने भारत के असली वैज्ञानिक को.......
गुरुत्वाकर्षण की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। माना जाता है की सन 1666 में गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन ने की | तो क्या गरूत्वाकर्षण जैसी मामूली चीज़ की खोज मात्र 350 साल पहले ही हुई है? ...नहीं।
हम सभी विद्यालयों में पढ़ते हैं की न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की खोज की थी परन्तु मह्रिषी भाष्कराचार्य ने न्यूटन से लगभग 500 वर्ष पूर्व ही पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था |
भास्कराचार्य प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे। इनका जन्म 1114 ई0 में हुआ था। भास्कराचार्य उज्जैन में स्थित वेधशाला के प्रमुख थे। यह वेधशाला प्राचीन भारत में गणित और खगोल शास्त्र का अग्रणी केंद्र था।
जब इन्होंने "सिद्धान्त शिरोमणि" नामक ग्रन्थ लिखा तब वें मात्र 36 वर्ष के थे। "सिद्धान्त शिरोमणि" एक विशाल ग्रन्थ है।
जिसके चार भाग हैं
(1) लीलावती
(2) बीजगणित
(3) गोलाध्याय और
(4) ग्रह गणिताध्याय।
लीलावती भास्कराचार्य की पुत्री का नाम था। अपनी पुत्री के नाम पर ही उन्होंने पुस्तक का नाम लीलावती रखा। यह पुस्तक पिता-पुत्री संवाद के रूप में लिखी गयी है। लीलावती में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है।
भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
"मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो,
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।"
सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-
"आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं,
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति,
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।"
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।
ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण भी उपलब्ध हैं !
तथा इसके अतिरिक एक और बात मैं जोड़ना चाहूँगा की निश्चित रूप से गुरुत्वाकर्षण की खोज हजारों वर्षों पूर्व ही की जा चुकी थी जैसा की महर्षि भारद्वाज रचित 'विमान शास्त्र ' के बारे में बताया था ।
विमान शास्त्र की रचना करने वाले वैज्ञानिक को गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बारे में पता न हो ये हो ही नही सकता क्योंकि किसी भी वस्तु को उड़ाने के लिए पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का विरोध करना अनिवार्य है। जब तक कोई व्यक्ति गुरुत्वाकर्षण को पूरी तरह नही जान ले उसके लिए विमान शास्त्र जैसे ग्रन्थ का निर्माण करना संभव ही नही |
अतएव गुरुत्वाकर्षण की खोज कई हजारों वर्षो पूर्व ही की जा चुकी थी।
हमे गर्व है भारत के गौरवशाली ज्ञान और विज्ञान पर। अब आवश्यकता है इसको विश्व मंच पर स्थापित करने की।

‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ में 'अधिनायक' कौन है ?

‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ में 'अधिनायक' कौन है ?
‘जन गण मन’ भारत का राष्ट्रगान है, जो मूलतः बांग्ला-भाषा में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) द्वारा 1911 में लिखा गया था।
सन 1911 तक भारत की राजधानी कलकत्ता हुआ करती थी। सन 1905 में जब बंगाल-विभाजन को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजों ने अपने को बचाने के लिए भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली ले गए और 1912 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। इस समय जब पूरे भारत में लोग विद्रोह से भरे हुए थे, अंग्रेजों ने इंग्लैंड के राजा किंग जार्ज V (1910-1936) को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाएं.
किंग जार्ज V 12 दिसंबर, 1911 में भारत में आया तो अंग्रेजों ने रवींद्रनाथ ठाकुर पर दबाव बनाया कि तुम्हें एक गीत राजा के स्वागत में लिखना होगा. उस समय रवींद्रनाथ का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे. रवींद्रनाथ के दादा द्वारकानाथ ठाकुर (1794-1846) ने बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी की. जब किंग जार्ज V भारत आए थे, तब रवींद्रनाथ के परिवार के एक सदस्य को उनके सिर पर छतरी तानने का जिम्मा दिया गया था।
किंग जार्ज V की स्तुति में रवींद्रनाथ ठाकुर ने जो गीत लिखा, उसके बोल हैं : "जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता". इस गीत के सारे-के-सारे शब्दों में जार्ज V का गुणगान है, जिसका अर्थ "भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है हे अधिनायक (सुपर हीरो), तुम्हीं भारत के भाग्य विधाता हो, तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा मतलब महाराष्ट्र, द्रविड़ मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदियां, जैसे— यमुना और गंगा— ये सभी हर्षित हैं खुश हैं प्रसन्न हैं तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते हैं और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते तुम्हारी ही हम गाथा गाते हैं. हे भारत के भाग्यविधाता (सुपर हीरो) तुम्हारी जय हो"
परन्तु यह गीत जार्ज V के स्वागत में 12 दिसंबर, 1911 को दिल्ली-दरबार में नहीं गाया गया। जार्ज जब इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया। जार्ज ने जब इस गीत का अंग्रेजी अनुवाद सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की। खुश होकर उसने आदेश दिया कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को इंग्लैंड बुलाया जाये। रवीन्द्रनाथ ठाकुर इंग्लैंड गए। जार्ज V उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था। उसने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया। तो रवीन्द्रनाथ ने नोबल पुरस्कार को लेने से मना कर दिया, क्योंकि गाँधीजी ने रवीन्द्रनाथ को उनके इस गीत के लिए खूब डांटा था। रवीन्द्रनाथ ने कहा की आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक ‘गीतांजलि’ नामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये क़ि मुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो ‘गीतांजलि’ नामक रचना पर दिया गया है। जार्ज V मान गया और रवीन्द्रनाथ को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना पर नोबल पुरस्कार दिया गया।
रवींद्रनाथ ठाकुर के बहनोई, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और IPS ऑफिसर थे. रवींद्रनाथ ने अपने बहनोई को एक पत्र लिखा | इसमें उन्होंने लिखा कि ये गीत “जन गण मन अंग्रेजों द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया है. इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है. इसको न गाया जाये तो अच्छा है.” लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं बताया जाये. लेकिन कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दे |
दिल्ली-दरबार के बाद हुए कांग्रेस के कलकत्ता-अधिवेशन (27 दिसम्बर, 1911) में ‘जन गण मन’ गीत को दोनों भाषाओं में (बांग्ला और हिन्दी) गाया गया। अगले दिन अख़बारों में प्रकाशित हुआ :
* अधिवेशन की कार्रवाई रवींद्रनाथ ठाकुर के लिखे एक गीत से शुरू हुई। ठाकुर का यह गीत राजा पंचम जॉर्ज के स्वागत के लिए खास तौर से लिखा गया था। (द इंग्लिश मैन, कलकत्ता)
* कांग्रेस का अधिवेशन रवींद्रनाथ ठाकुर के लिखे एक गीत से शुरू हुआ। जॉर्ज पंचम के लिए लिखा यह गीत अंग्रेज प्रशासन ने बेहद पसंद किया है। (अमृत बाजार पत्रिका, कलकत्ता)
कांग्रेस तब अंग्रेज वफादारों का संगठन था। 1947 में भारत के स्वाधीन होने के बाद संविधान सभा में इस बात पर लंबी बहस चली कि राष्ट्रगान ‘वंदे मातरम’ हो या ‘जन-गण-मन’। अंत में ज्यादा वोट ‘वंदे मातरम’ के पक्ष में पड़े, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ‘जन गण मन’ को ही राष्ट्रगान बनाना चाहते थे। अंततोगत्वा संविधान सभा ने 24 जनवरी, 1950 को जन-गण-मन को ‘भारत के राष्ट्रगान’ के रुप में स्वीकार कर लिया. स्वाधीनता-आंदोलन के समय से ही ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रीय गीत की हैसियत मिली हुई थी, लेकिन उसे मुसलमान मानने को तैयार नहीं थे। सो, 'जन−गण−मन' अपना राष्ट्रगान हो गया।

क्या तिरंगा/राष्ट्र ध्वज - राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को अछूत है....!!

विषय: क्या तिरंगा/राष्ट्र ध्वज - राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को अछूत है....!!
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बारे में दुष्प्रचार का एक बड़ा झूठ कुछ इस प्रकार फैलाया गया की संघ को तिरंगा अछूत है..
इतिहास के पन्नों से कुछ जानकारियाँ मिली हैं जो सभी से साझा किया जाना मुझे उचित लगा,, आप भी जानिये ...
(1) 1936 में कांग्रेस के फैजपुर राष्ट्रीय अधिवेशन में तत्कालीन अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू जब ध्वजारोहण कर रहे थे,
झण्डा बीच में ही अटक गया।
ध्वजदंड अस्सी फुट ऊंचा था।
अनेक ने उस पर चढ़कर ध्वज ठीक करने की कोशिश की, पर असफल रहे।
तभी "किसन सिंह परदेशी" नामक संघ का स्वयंसेवक तेजी से उस दंड पर चढ़ गया और ध्वज खोल आया।
लोगों ने प्रशंसा की।
खुले अधिवेशन में परदेशी को सम्मानित करने की बात स्वयं नेहरू जी ने कही।
पर जब पता चला कि परदेशी संघ का स्वयंसेवक है, तो सम्मान नहीं किया गया।
कुछ दिन बाद संघ के जन्मदाता डाक्टर हेडगेवार - किसन सिंह के गांव शिरपुर (महाराष्ट्र) आए और तिरंगे का मान रखने के लिए उन्होंने उसे एक कार्यक्रम में चांदी का पात्र भेंट किया।
(2) देशभक्ति का सहज संस्कार प्राप्त संघ के स्वयंसेवकों ने 1947 में श्रीनगर (कश्मीर) में भी तिरंगे का सम्मान स्थापित किया था।
वहां 14 अगस्त को (जब पाकिस्तान बना) शहर की कई इमारतों पर पाकिस्तानी झण्डे फहरा दिए गए। तब कुछ ही घण्टों में संघ के लोगों ने तीन हजार तिरंगे सिलवाकर पूरी राजधानी उनसे पाट दी थी।
(3) लोग भूल गए हैं कि 1952 में जम्मू संभाग में संघ ने "तिरंगा सत्याग्रह' करके 15 बलिदान दिए थे।
हुआ यूं कि "सदरे रियासत" का पद संभालने के बाद डा. कर्णसिंह 22 नवम्बर, 1952 को जम्मू आने वाले थे।
उनके स्वागत समारोह में शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस केवल अपना लाल-सफेद दुरंगा झण्डा फहराने चली थी।
तब जम्मू क्षेत्र के सभी मुख्यालयों पर संघ कार्यकर्ताओं ने तिरंगा फहराए जाने की मांग को लेकर सत्याग्रह किए।
चार स्थानों- छम्ब, सुंदरवनी, हीरानगर और रामवन में इन "तिरंगा सत्याग्रहियों' पर शेख की पुलिस ने गोलियां चलायीं,
जिसमें मेलाराम, कृष्णलाल, बिहारी, शिवा आदि 15 स्वयंसेवक मारे गए थे।
तिरंगा फहराने का अपना अधिकार जताने के लिए स्वतंत्र भारत में किसने ऐसी कुर्बानी दी है?
(4) 2 अगस्त, 1954 को पूना के संघचालक विनायक राव आपटे के नेतृत्व में संघ के सौ कार्यकर्ताओं ने सिलवासा (दादरा और नगर हवेली का मुख्यालय) में घुसकर वहां से पुर्तगाली झण्डा उखाड़कर तिरंगा फहराया था।
पुर्तगाली पुलिसजनों को बंदी बना लिया और इस तरह वहां पुर्तगाली शासन का अंत किया।
(5) पणजी (गोवा) में 1955 में पुर्तगाली सरकार के सचिवालय पर भी पहली बार तिरंगा फहराने वाला व्यक्ति भी मोहन रानाडे नामक एक स्वयंसेवक था,
जो इस "जुर्म' में 1972 तक लिस्बन (पुर्तगाल) की जेल में रहा।
(6) गोवा में पुर्तगाल शासन के खिलाफ तिरंगा हाथ में लिए सत्याग्रह करते हुए राजाभाऊ महाकाल (उज्जैन के स्वयंसेवक) पुलिस की गोली से मारे गए थे।
ऐसे कितने ही उदाहरण हैं।
(7) 1962 में जब चीनी सेना नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) में आगे बढ़ रही थी,
तेजपुर (असम) से कमिश्नर सहित सारा सरकारी तंत्र तथा जनसाधारण भयभीत होकर भाग गए थे।
तब आयुक्त मुख्यालय पर तिरंगा फहराए रखने के लिए सोलह स्वयंसेवकों ने दिन-रात ड्यूटी दी थी।
(8) 15 अगस्त, 1996 को लाल चौक, श्रीनगर में आतंकवाद के सीने पर संघ के ही एक स्वयंसेवक मुरली मनोहर जोशी ने तिरंगा फहराया था।
तिरंगे की आन के लिए स्वतंत्र भारत में ऐसी कुर्बानी किसने भी नही दी है...!!!!
और इसके लिए संघ या स्वयंसेवको को किसी के शिक्षा की जरुरत नही है, क्योकि देशभक्ति संघ के स्वयंसेवकों का सहज संस्कार है।
वन्दे मातरम

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